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बीबी समझा है क्या ( लघुकथा )


“ अबे ! ए… जा कहाँ रहा है | माल निकाल | ” बिस्तर पर पड़े अपने कपड़े पहनते हुए वह बोली |    आज तक पुलिसवाले से पैसे माँगने की किसी की हिम्मत नहीं हुई थी |     “ तू जानती नहीं है मुझे ! “ वह लाल आँखें दिखाता हुआ बोला “ क्या बचा है जानने को ? तेरे जैसे यहाँ रोज आते हैं घाट का पानी पीते हैं दक्षिणा चढ़ाते हैं और चलते बनते हैं | रौब मत झाड़… देख लिया कितना दम है.. अकड़ किसी और को दिखाना…देह बेचती हूँ ईमान नहीं | होगा कहीं का दारोगा …चल अंटी ढीली कर | ”              “ साली ! बकबक कर रही है …थाने ले जाकर इतना कुटूँगा कि धंधा करने लायक भी नहीं रहेगी ! ”     “ अबे ! भीख माँग लूँगी पर हराम की कमाई नहीं है मेरी जो तू आसानी से ले उड़े | ”   “ क्या कर लेगी तू …जा नहीं देता पैसे ! ”      “ तेरे ही थाने में बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाऊँगी तेरे ही खिलाफ और देखती हूँ कौन बचाता है …साले ! बीबी समझा है क्या ? ”

केदार नाथ शब्द मसीहा

“मंटो न मरब” से साभार

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