🚨आदेश नहीं फतवा🚨
🔹”हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं, लेकिन गड्ढों में गिरकर मरना माफ़!”🔹
—पत्रकार ममता गनवानी की कलम से ✍🏻
भोपाल की सड़कों पर चलना अब सड़क यात्रा नहीं, एडवेंचर स्पोर्ट्स बन चुका है।
कहीं पानी में डूबती बाइक, कहीं गड्ढों में समाते स्कूटर और ऊपर से प्रशासन की दूरदर्शिता – “हेलमेट नहीं तो पेट्रोल नहीं।”
वाह सरकार!
आपको तो नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए – कागज़ पर चलने वाले नियमों को ज़मीन की हकीकत से जोड़ने में इतनी असफलता के लिए।
सड़कें? वो तो खुदा की बनाई नदियों से बेहतर बह रही हैं।
बारिश के बाद गलियों में नावें चलवा लो, ट्रैफिक पुलिस को अब लाइफ गार्ड की ट्रेनिंग भी दिलवाओ।
लेकिन रुकिए… हेलमेट पहनिए, नहीं तो पेट्रोल नहीं मिलेगा।
क्यों?
क्योंकि जनता की जान की चिंता है आपको!
लेकिन गड्ढों में गिरकर मरने का क्या? उसके लिए कोई फतवा नहीं?
क्या आपने कभी सोचा है कि हेलमेट पहन कर भी अगर कोई व्यक्ति आपकी बनाई झीलनुमा सड़कों में गिरकर मर गया, तो जिम्मेदार कौन?
सरकार से सवाल पूछने पर जवाब आता है –
“हम गली का नाम बदल देंगे”,
“शहर का रंग बदल देंगे”,
“नया नियम ला देंगे।”
सरकारी काम नहीं हो रहा, तो फतवा जारी कर दो!
अरे साहब, अगर काम नहीं कर पा रहे हो,
तो कम से कम आम आदमी का अपमान मत करो।
हमें सड़क चाहिए, नाम नहीं।
हमें विकास चाहिए, दिखावा नहीं।
हमें सुविधा चाहिए, सिर्फ सुरक्षा के नाम पर नौटंकी नहीं।
जनता मजबूर हो सकती है, लेकिन बेवकूफ नहीं है।
जो पैसा जनता ने टैक्स में दिया है,
वो हराम की कमाई नहीं है कि कुर्सी पर बैठकर डकार लिया जाए।
सरकारी कुर्सी पर बैठकर नियम बनाना आसान है,
पर कभी खुद बाइक लेकर गड्ढों से भरी सड़क पर निकलो,
तब समझ में आएगा कि हेलमेट ज़रूरी है या नाव।
और हां,
जो आज डकार रहे हो,
वो कल तुम्हारी औलादें बैंक में जमा ब्याज समेत चुकाएँगी –
इतिहास गवाह है, कुर्सियां हमेशा नहीं टिकतीं।